परमार्थ निकेतन में श्रावण माह में संगीतमय अखंड रामायण का आयोजन
कमल अग्रवाल (हरिद्वार) उत्तराखंड
ऋषिकेश (07 जुलाई 2023 ) ÷ऋषिकेश। परमार्थ निकेतन के संस्थापक पूज्य महामण्डलेश्वर स्वामी शुकदेवानन्द सरस्वती जी महाराज के 58 वें निर्वाण-महोत्सव के अवसर पर परमार्थ निकेतन में पांच दिवसीय संगीतमय अखंड रामायण पाठ का आयोजन किया गया। महामण्डलेश्वर स्वामी असंगानन्द सरस्वती जी के पावन सान्निध्य में पंचदिवसीय सामूहिक संगीतमय श्रीरामचरित मानस पाठ का शुभारम्भ किया। साथ ही विशाल भंडारा व संतों हेेतु भोजन-प्रसाद का आयोजन किया गया।
परमार्थ निकेतन में धर्म, अध्यात्म और पर्यावरण संरक्षण का अद्भुत समन्वय है। साथ ही परमार्थ निकेतन में विभिन्न धार्मिक, आध्यात्मिक, शौक्षणिक एवं अन्र्तधार्मिक गतिविधियां निरन्तर चलती रहती हैं। परमार्थ निकेतन आश्रम की स्थापना वर्ष 1942 में परम पूज्य महामंडलेश्वर स्वामी शुकदेवानन्द सरस्वती जी महाराज ने दूर-दराज से आने वाले भक्तों के लिये तीर्थ सेवन हेतु की थी तब से ही यहां पर संत सेवा, अन्नदान, गौ सेवा, संस्कृत, संस्कृति, संस्कार का संरक्षण, प्रचार-प्रसार, गुरूकुल, चिकित्सा सेवा एवं अनेक आध्यात्मिक गतिविधियां निरंतर चल रही हैं। वर्तमान समय में आश्रम में प्रतिदिन प्रार्थना, पूजा, हवन, गंगा आरती, योग, ध्यान, प्राणायाम, सत्संग, व्याख्यान, कीर्तन और अन्य आध्यात्मिक गतिविधियां प्रतिदिन होती रहती हैं।
स्वामी चिदानन्द सरस्वती जी महाराज के मार्गदर्शन व नेतृत्व में परमार्थ निकेतन में वैश्विक कार्यक्रम, सम्मेलन, शिखरवार्ताओं का आयोजन किया जाने लगा। वर्तमान समय मंे परमार्थ निकेतन, आश्रम अपनी आध्यात्मिक, योग, सामाजिक और प्राकृतिक गतिविधियों के कारण वैश्विक स्तर पर ख्याति प्राप्त कर चुका है।
यहां पर अति प्राचीन धर्मग्रंथों से युक्त पुस्तकालय है जिसमें वेद, उपनिषद्, धर्म, अध्यात्म, दर्शन, विज्ञान और अनेक प्राचीन और आधुनिक शोधों पर आधारित ग्रंथ है। परमार्थ निकेतन में सर्वसुविधा युक्त छात्रावास है जहां पर गरीब और अनाथ बच्चों को निःशुल्क शिक्षा, आवास, भोजन, चिकित्सा, संगीत और वेद अध्ययन कराया जाता है। साथ ही योग, संगीत, कम्प्यूटर आदि विषयों की भी शिक्षा दी जाती है।
स्वामी चिदानन्द सरस्वती जी ने कहा कि ‘गुरू’ जीवन में प्रकाश पैदा करते हैं; जीवन में जो अन्धकार है उसे गुरू रूपी ज्योति दिव्य प्रकाश से प्रकाशित करती है। जीवन तो विकास से प्रकाश, विषाद से प्रसाद और संशय से श्रद्धा की दिव्य यात्रा है। जब शिष्य का सम्पूर्ण सर्मपण होता है तब गुरू की कृपा का अवतरण होता है। श्रीमद्भगवद गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है ‘‘कृष्णं वंदे जगद्गुरुम्’’ अर्थात जिससे भी प्रकाश मिले, ज्ञान प्राप्त हो, जो भी श्रेष्ठ और सही मार्ग दिखाये, जीवन के अन्धकार, विषाद, पीड़ा को दूर कर कर्तव्यों का बोध कराये वह गुरु-तत्त्व है और वह गुरु-तत्त्व सबके भीतर विराजमान है।
स्वामी चिदानन्द सरस्वती जी ने कहा कि गुरू-शिष्य परम्परा आदिगुरू अंगिरा और महर्षि भृगु, महर्षि अत्रि और अगस्त्य ऋषि जैसे विलक्षण प्रतिभासम्पन्न महानगुरु हुये। महर्षि शौनक, पुलह, पुलस्त्य आदि अनेक ऋषि हुये जिन्होंने गुरुपद को पवित्र और उत्कृष्ट बनाये रखा और सनातन संस्कृति को गौरवान्वित किया। गुरू भारद्वाज, महर्षि वशिष्ठ, मार्कंडेय, मतंग, वाल्मीकि, विश्वामित्र, परशुराम और दत्तात्रेय आदि गुरूओं ने सनातन संस्कृति को जिया और हमें भी जीने का मार्ग दिखाया। ऋषि पराशर, गुरू कृपाचार्य, सांदीपनि आदि अनेक गुरु हुए जिन्होंने भारतीय संस्कृति और संस्कारों को जीवंत बनाये रखा। श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ आद्यगुरू शंकराचार्य जी ने हिंदू धर्म को पुनर्जीवित कर चार धामों व चार पीठों की स्थापना की तत्पश्चात गुरुपरम्परा में गुरू गोरखनाथ जी, गुरू वल्लभाचार्य जी, रामानंद जी, माधव जी, निम्बार्क जी आदि अनेक आचार्य, महापुरूष हुये जिन्होंने भारत भूमि को गौरवान्वित किया।